दवा कंपनियों का खेलः हर छह माह में 10 फीसदी बढ़ जाते हैं दवाओं के दाम
दवा कंपनियां अपने उत्पादन के हिसाब से नया बैच नंबर तय करती हैं। छोटी कंपनियां कम उत्पादन दिखाकर लगातार बैच नंबर बदलती रहती हैं। इसके साथ ही दवा का मूल्य भी बढ़ा देती हैं। राजधानी के बाजार में जिस दवा की मांग अधिक होती है, उसका अगला बैच उतनी ही जल्दी आता है।
उसे दाम बढ़ाकर तुरंत बाजार में उतार दिया जाता है। ऐसे में मरीज या तीमारदार जब दोबारा दवा लेने आता है तो उसे नए बैच की दवा मिलती है। यदि कोई मरीज पहली बार एक हजार की दवा लेकर गया है तो अगले माह उसे 1100 की दवा खरीदनी पड़ती है। इसे लेकर दवा दुकानदार और खरीदार में विवाद भी होता है।
उसे दाम बढ़ाकर तुरंत बाजार में उतार दिया जाता है। ऐसे में मरीज या तीमारदार जब दोबारा दवा लेने आता है तो उसे नए बैच की दवा मिलती है। यदि कोई मरीज पहली बार एक हजार की दवा लेकर गया है तो अगले माह उसे 1100 की दवा खरीदनी पड़ती है। इसे लेकर दवा दुकानदार और खरीदार में विवाद भी होता है।
फुटकर दुकानदारों के सामने समस्
प्रतीकात्मक तस्वीर
दवाओं के दाम बढ़ने से थोक बाजार की लागत बढ़ जाती है, लेकिन फुटकर दुकानदारों के सामने समस्या बढ़ जाती है। क्योंकि उनके यहां मरीज कम मात्रा में दवाएं खरीदते हैं। कोई एक पत्ता दवा ले गया और पांच दिन बाद दोबारा लेने आया तो उसे अधिक रुपये देने पड़ते हैं। इससे विवाद की स्थिति बनी रहती है
विभाग नहीं करता मूल्य निर्धारण
राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण की ओर से दवाओं के दाम तय होते हैं। एफएसडीए सिर्फ निगरानी करता है। दवा को ब्लैक मूल्य पर बेचने पर संबंधित के खिलाफ कार्रवाई करता है। छोटी कंपनियां कम मात्रा में दवाएं बनाती हैं। मांग बढ़ने पर वे नए बैच से दवा जारी करती हैं। इस दौरान कुछ मूल्य बढ़ा देती हैं। दाम बढ़ाने के लिए वे प्राधिकरण में कच्चे माल का दाम बढ़ने का हवाला देती हैं। विभाग लगातार मेडिकल स्टोरों की जांच करता रहता हैं। निर्धारित मूल्य से अधिक दाम पर दवाएं नहीं बेची जा रही हैं। - रमाशंकर सहायक आयुक्त, एफएसडीए लखनऊ।
लागत बढ़ने की दुहाई देती हैं कंपनियां
ट्रांसपोर्ट, जीएसटी का हवाला देकर कंपनियां कच्चे माल की लागत बढ़ने की दुहाई देती हैं। बैच का निर्धारण समय के अनुसार नहीं होता है। दवा बनाने और उसके बिक जाने की रिपोर्ट प्राधिकरण में दी जाती है। फिर उसी हिसाब से अगले बैच से दवा बाजार में उतारी जाती है। इन दिनों बड़ी संख्या में छोटी-छोटी कंपनियां आ गई हैं। ये लगातार बैच नंबर बदलती हैं और उसके साथ मूल्य भी।
विभाग नहीं करता मूल्य निर्धारण
राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण की ओर से दवाओं के दाम तय होते हैं। एफएसडीए सिर्फ निगरानी करता है। दवा को ब्लैक मूल्य पर बेचने पर संबंधित के खिलाफ कार्रवाई करता है। छोटी कंपनियां कम मात्रा में दवाएं बनाती हैं। मांग बढ़ने पर वे नए बैच से दवा जारी करती हैं। इस दौरान कुछ मूल्य बढ़ा देती हैं। दाम बढ़ाने के लिए वे प्राधिकरण में कच्चे माल का दाम बढ़ने का हवाला देती हैं। विभाग लगातार मेडिकल स्टोरों की जांच करता रहता हैं। निर्धारित मूल्य से अधिक दाम पर दवाएं नहीं बेची जा रही हैं। - रमाशंकर सहायक आयुक्त, एफएसडीए लखनऊ।
लागत बढ़ने की दुहाई देती हैं कंपनियां
ट्रांसपोर्ट, जीएसटी का हवाला देकर कंपनियां कच्चे माल की लागत बढ़ने की दुहाई देती हैं। बैच का निर्धारण समय के अनुसार नहीं होता है। दवा बनाने और उसके बिक जाने की रिपोर्ट प्राधिकरण में दी जाती है। फिर उसी हिसाब से अगले बैच से दवा बाजार में उतारी जाती है। इन दिनों बड़ी संख्या में छोटी-छोटी कंपनियां आ गई हैं। ये लगातार बैच नंबर बदलती हैं और उसके साथ मूल्य भी।